पाकिस्तान और भारतीय मुसलमान

 


पाकिस्तान और भारतीय मुसलमान


-राम पुनियानी


 “पाकिस्तान चले जाओ’ पिछले कुछ सालों में भारत के मुसलमानों को अपमानित करने का पसंदीदा ताना बन गया है. हाल में सोशल मीडिया में एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें उत्तरप्रदेश के मेरठ के एसपी अखिलेश नारायण सिंह कथित तौर पर ‘पाकिस्तान चलो जाओ’ के ताने का इस्तेमाल करते हुए दिख रहे हैं. वीडियो में वे मेरठ के लिसारी गेट इलाके में विरोध प्रदर्शनकारियों पर चिल्लाते हुए दिख रहे हैं. वे कह रहे हैं, “जो लोग (विरोध प्रदर्शनकारी) काली और पीली पट्टियाँ बांधे हुए हैं उनसे कहो कि वे पाकिस्तान चले जाएं”.


उनके वरिष्ठ अधिकारियों ने उनका बचाव करते हुए कहा कि उनकी टिपण्णी “पाकिस्तान-समर्थक नारों पर स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी”. उमा भारती सहित कई भाजपा नेताओं ने भी उनका समर्थन किया. परन्तु अपनी पार्टी के अन्य नेताओं के विपरीत, भाजपा के मुख़्तार अब्बास नक़वी ने उक्त अधिकारी की आलोचना की और उसके खिलाफ उपयुक्त कार्यवाही किये जाने की मांग की. यह दिलचस्प है कि इन्हीं नक़वी ने बीफ के मुद्दे पर देश में मचे बवाल के दौरान कहा था कि जो लोग बीफ खाना चाहते हैं, वे पाकिस्तान जा सकते हैं.


यह शायद पहली बार है कि किसी भाजपा नेता ने भारत के मुसलमानों पर यह तंज कसे जाने पर आपत्ति उठाई है. विभाजनकारी राजनीति का समर्थन करने वाली शक्तिशाली ट्रोल सेना ने इसके बाद नक़वी पर हमला बोल दिया. “पाकिस्तान चले जाओ” कह कर आक्रामक तत्त्व लम्बे समय से मुसलमानों का दानवीकरण और उन्हें अपमानित करते आये हैं. हम सभी को याद है कि जिस समय देश के कई जानेमाने लेखक, फिल्म निर्माता आदि बढ़ती असहिष्णुता के विरोध में अपने सरकारी पुरस्कार लौटा रहे थे, उस समय फिल्म अभिनेता आमिर खान ने कहा था कि उनकी पत्नी किरण राव उनके बच्चे की  सुरक्षा के लिए चिंतित हैं. उनका यह कहना भर था कि गिरिराज सिंह जैसे भाजपाई उन पर टूट पड़े और उन्हें पाकिस्तान जाने की सलाह देने लगे.


भाजपा परिवार, “पाकिस्तान चले जाओ” के नारे का इस्तेमाल एक रणनीति बतौर मुसलमानों को अपमानित करने के लिए करता रहा है. परिवार द्वारा एक अन्य सन्दर्भ में भी पाकिस्तान को घसीटा जा रहा है. जो लोग भाजपा-आरएसएस की नीतियों से असहमत हैं, उन्हें राष्ट्रद्रोही तो कहा ही जाता है उन पर यह आरोप भी लगाया जाता है कि वे “पाकिस्तान की भाषा बोल रहे हैं”.


देश के मुसलमानों और अपने विरोधियों पर पाकिस्तानी का लेबल चस्पा करना, सांप्रदायिक ताकतों की एक कुटिल चाल है. ‘क्रिकेट राष्ट्रवाद’ में भी इसका इस्तेमाल होता था. जब भी क्रिकेट के मैदान में भारतीय और पाकिस्तानी टीमों के बीच मुकाबला होता था, देश में एक जूनून-सा पैदा कर दिया जाता था. उस समय भी मुसलमान ही निशाने पर रहते थे. यह कहा जाता था कि मुसलमान पाकिस्तान की टीम की हौसला अफजाई करते हैं और उसकी जीत चाहते हैं. दुर्भाग्यवश, देश के मुसलमानों का एक छोटा असंतुष्ट तबका यह करता भी था. परन्तु क्रिकेट मैचों में भारत की जीत में मुसलमान खिलाड़ियों के योगदान को कोई याद नहीं करता. नवाब मंसूर अली खान पटौदी, इरफ़ान पठान और अजहरुद्दीन, भारतीय क्रिकेट टीम के ऐसे प्रतिभाशाली खिलाड़ियों में शामिल हैं, जो मुसलमान भी थे. उन्होंने क्रिकेट के मैदान में भारत का झंडा बुलंद करने में महती भूमिका निभायी.


भारत की भूमि और उसकी जनता की विदेशी आक्रमणों से रक्षा में मुसलमानों की भूमिका को भी नहीं भुलाया जा सकता. सन 1965 के भारत-पाक युद्ध में अब्दुल हमीद ने जिस शौर्य और पराक्रम का परिचय दिया था, वह भारत की सेना के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज है. कारगिल युद्ध में भारत की विजय में भी मुसलमान सैनिकों की भूमिका थी. सीमा के अलावा, सेना के मुसलमान अफसरों ने देश के अन्दर भी सराहनीय भूमिका अदा की है. जनरल ज़मिरुद्दीन शाह को गुजरात में 2002 में भड़के दंगों को नियंत्रित करने के लिए वहां भेजा गया था. स्थानीय प्रशासन के असहयोग के बावजूद, जनरल के नेतृत्व में सेना की टुकड़ियों ने हिंसा को काफी हद तक नियंत्रित किया.


स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान मुसलमानों ने अन्य समुदायों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष किया. देश में यह धारणा बना दी गयी है कि सभी मुसलमान पाकिस्तान के निर्माण की मांग के समर्थक थे. यह सही नहीं है. मुसलमानों का केवल एक छोटा सा उच्च वर्ग, मुस्लिम लीग की राजनीति का समर्थक था. बाद में, लीग ने अन्य तबकों के कुछ मुसलमानों को भी अपने साथ जोड़ने में सफलता पा ली और कलकत्ता और अन्य शहरों में ‘डायरेक्ट एक्शन’ के नाम पर हिंसा भड़काई. मुस्लिम लीग के अलावा, ब्रिटिश भी देश का बंटवारा चाहते थे. विभाजन में ‘द्विराष्ट्र सिद्धांत’ के भूमिका को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. 


अक्सर यह भुला दिया जाता है कि राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल अनेक मुस्लिम नेताओं ने द्विराष्ट्र सिद्धांत और मुस्लिम लीग की राजनीति का कड़ा विरोध किया था. सैयद नसीर अहमद, उबेद-उर-रहमान, सतीश गंजू और शम्सुल इस्लाम उन लेखकों में हैं, जिनकी कृतियों में खान अब्दुल गफ्फार खान, मौलाना अबुल कलाम आजाद, अंसारी ब्रदर्स और अशफाकउल्ला खान जैसे मुस्लिम नेताओं की स्वाधीनता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका का विस्तार से वर्णन है.


विभाजन की त्रासदी के बाद, साम्प्रदायिक दुष्प्रचार के चलते देश को दो भागों में बांटने के लिए केवल मुसलमानों को दोषी ठहराया जाने लगा. यह भुला दिया गया कि मोहम्मद अली जिन्ना के लाहौर प्रस्ताव के विरोध में गरीब मुसलमानों ने विशाल रैलियां निकालीं थीं. संपूर्ण मुस्लिम समुदाय को एकसार मान लिया गया और सैकड़ों साल पहले राज करने वाले मुसलमान बादशाहों के अत्याचारों के लिए उन्हें दोषी ठहराया जाने लगा. मुसलमानों के खिलाफ इस हद तक नफरत फैलाई गई और हिंसा की गई कि वे अपने मोहल्लों में सिमटने को मजबूर हो गए.


गांधी-नेहरू ने जिस समावेशी और बहुवादी भारत की कल्पना की थी वह केवल कल्पना बन कर रह गई. मुसलमानों के आर्थिक हाशियाकरण और उनमें असुरक्षा के भाव के चलते उनका एक बहुत छोटा सा तबका पाकिस्तान की ओर देखने लगा और साम्प्रदायिक तत्व इस तबके को पूरे मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधि बताने लगे.


आज समाज में मुस्लिम समुदाय के बारे में अनेकानेक मिथ्या धारणाएं व्याप्त हैं. यह सचमुच आश्चर्यजनक है कि नक़वी ने अपनी पार्टी के अन्य नेताओं के विपरीत, मेरठ के पुलिस अधीक्षक के खिलाफ कार्यवाही की मांग की है. आज जरूरत इस बात की है कि मुसलमानों के बारे में समाज में फैले भ्रमों को दूर किया जाए. (अंग्रेजी से हिन्दी रुपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आईआईटी,मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)


संपादक महोदय,                


                     कृपया इस सम-सामयिक लेख को अपने प्रकाशन में स्थान देने की कृपा करें.           


-एल एस हरदेनिया   


 


 


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